ओंकारान्त शब्द है “राम”, अत: राम शब्द देखने में जितना सुन्दर प्रतीत होता है, उससे कहीं महत्वपूर्ण है इसका उच्चारण। राम नाम के जपने मात्र से ओंकार के उच्चारण में होने वाली आत्मिक शांति जैसा अनुभव देता है। हिन्दू धर्म के चार आधार स्तंभों में एक है “प्रभु श्री राम”। “अवध के राम सबके राम” एक ऐतिहासिक महापुरूष थे, इसके पर्याप्त प्रमाण है शोधानुसार श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व हुआ था। “अवध के राम सबके राम”, इसका एक और प्रमाण वाल्मीकि द्वारा रचित “रामायण” है जो मूल रूप से संस्कृत मे है, इसके अलावा विभिन्न भाषाओं जैसे तमिल में “कंबन रामायण,” असमी में “असमी रामायण”, उड़िया में “विलंका रामायण”, कन्नड़ में “पंप रामायण”, बंगला में “कीर्तिवासी रामायण” आदि के अतिरिक्त भी कई और भाषाओं में अनुवादित की गई है। तुलसीदास जी द्वारा रचित “राम चरित मानस” हिन्दी भाषी राज्यों में सबसे ज्यादा प्रचलित है। चौदह वर्ष वनवास काल मे श्री राम वनवासियों, आदिवासियों, वानरों, राक्षसों सभी में चर्चित व पूजित थे, जिसके कारण ही वे केवल अवध के राम न हो कर सबके राम हो गए। राम ने कभी भी अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रदर्शन राम के रूप में नहीं किया इसीलिए भी वह जन जन के राम हैं।
राम राज्य कोई कल्पना नहीं, अपितु आज भी जहाँ सब सुख पूर्वक रहते है उसे ही राम राज्य कहा जाता है। वह तो पुरूषोत्तम थे अर्थात अपने सभी कष्टों को आम मनुष्यों की तरह निभाते हुये सारा जीवन जीते रहे और इस उत्तम कोटि के पुरूष को सबने भगवान के आसन पर बैठा दिया। अतएव यह कथन भगवान राम के लिये सर्वथा उपयुक्त है कि वह केवल अवध के राम न हो कर जन जन के राम अर्थात “ओंकार स्वरूप” हैं।
राम को और भी कई तरह से समझा जा सकता है, पर उनमें से दो की बात की जा सकती है। एक राजा राम जो एक व्यक्ति के रूप में हैं, जिसमें गुण, अवगुण किसी भी आम इंसान की तरह हैं। प्रजा, आम लोगों और अनुयायियों को जब अपने जैसा, ज़मीन से जुड़ा, परिश्रम से बना कोई मार्गदर्शक मिलता है, तो उसका प्रभाव बहुत गहरा होता है और उसकी आस्था में बहुत शक्ति होती है।
दूसरा, अगर राम को भगवान माना जाये, या फिर एक संकल्पना, एक विचारधारा, तब वो पहले से बिल्कुल विपरीत, एक सिद्ध और संपूर्ण अवधारणा होगी। रामराज्य, जहां सब कुछ धर्म के अनुसार होगा, बिना भेद भाव के, सबको न्याय बराबर मिलेगा।
राम केवल धर्म से जोड़ कर देखने वालों के लिए यह समझना जरूरी है कि यह किसी संप्रदाय के लिए भगवान माने जाने वाले केवल दो शंब्द नहीं है बल्कि एक विद्वेष रहित सभ्य समाज के लिए आवश्यक विभिन्न लोगों के आचार विचार के लिए मानक के रूप में प्रस्तुत किए जाने वाले दो शब्द हैं। राम एक आदर्श हैं जिसे परिवार के हर एक रिश्ते में दिखने की लालसा होती है। हर एक पिता को राम जैसे बेटे की उम्मीद होती है जिसने बिना सोचे हुये पिता की इक्छा के अनुसार एक आज्ञाकारी बेटा होने का उदाहरण प्रस्तुत किया और घर छोड़ दिया। घर में सबसे बड़ा बेटा होने के नाते वह ऐसा करने से मना कर सकते थे परंतु ऐसा नहीं किया जिसे समाज के हर वर्ग को समझना चाहिए। कहीं और इस तरह का उदाहरण आसानी से देखने को नहीं मिल सकता। राम का होना आज के संदर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब सामाजिक मर्यादाएं दिन पर दिन घटती जा रही हैं। राम ने सारी जिंदगी में तरह तरह के कष्टों को झेलते हुए अपने कर्मों से समाज को संदेश देने की कोशिश की, जिससे एक अच्छे समाज का निर्माण हो सके। मुझे नहीं लगता कि राम को एक धर्म या संप्रदाय से जोड़ कर देखने की जरूरत है, यह तो परिवार और समाज के विभिन्न रिश्तों को समझने और समझाने के लिए एक आदर्श हैं जिसे एक सभ्य समाज के ताने बाने बुने जा सकें। राम ने कभी भी अपने को भगवान या सुपर पावर नहीं कहा। वह अपनी पत्नी के विछुड़ने या छोटे भाई के मूर्छित होने में रोते भी हैं यानी आम आदमी की तरह ही जीवन जीना और कभी भी सत्य और मर्यादा का नहीं छोड़ा। राम नें अपने काम निकालने के लिए कभी भी राजनीतिक दांव पेंच नहीं खेले हाँ लेकिन समाज मे रह कर एक दूसरे की मदद से काम कैसे किए जा सकते है उसके उदाहरण जरूर प्रस्तुत किए। हमारे बेशकीमती, गहन और आध्यात्मिक साहित्य में, और सभी महाकाव्यों में शायद इसीलिए राम, कृष्ण, शिव और कई ऐसे देवों की रचना की गई है जिससे हर युग के बदलते सामाज, परिवेश और धारणा के साथ परिप्रेक्ष्य भी बदलता रहे। जो नहीं बदलता, वो है एक धार्मिक, मानव और नैतिक उत्तरदायित्व, और प्रयास एक बेहतर विश्व बनाने की। एक अच्छे समाज के लिए राम की सबको जरूरत है।
साभार: बिनिता रुद्रा, अनामिका सिंह व पार्थ चौहान
Sundar sankalit lekh
Dhanyavad
*अवध के राम, सबके राम*
राम नाम का उल्लेख वेदों में भी है, जो कि अयोध्या के राजा राम के जन्म से बहुत पूर्व की रचनाएं हैं । यह भी निर्विवाद रूप से सत्य है कि “राम, शिव एवं ॐ” तीनों ही ओंमकार की प्रतिध्वनियां हैं । अतः राम तो कर्ण-कर्ण में समाये हैं ।
“राम सबमें हैं” यह कहना तो सर्वथा उचित है, किन्तु “राम सबके हैं” यह पूरी तरह से राजनैतिक कथन है ।
क्योंकि यदि राम सबके होते, तो ‘राम मंदिर’ निर्माण के लिए हिंदुओं को इतने सालों तक संघर्ष नहीं करना पड़ता । राम सबके होते तो मुस्लिम समुदाय ‘राम मंदिर निर्माण’ में इतनी अड़चनें नहीं पैदा करता ।
और तो और जब 5 अगस्त को भूमि पूजन हो गया, उसके बाद जो बयान “मौलवियों और मुस्लिम नेताओं” द्वारा दिये जा रहे हैं, क्या वो भाईचारे के धोतक हैं । वो तो सीधे सीधे चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले 50-60 वर्षों बाद जब हम सत्ता में आयेंगे तो मन्दिर को गिराकर पुनः वहां मस्जिद बनवाएंगे। और वो हवा में बात नहीं कह रहे हैं, जिस तरह से वो लोग अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, आने वाले 40-50 वर्षों में 40% से अधिक हो जाएगी, तब उनकी सरकार होगी, और जो स्थिति पाकिस्तान , बांग्लादेश में हिंदुओ की है, वही स्थिति ‘भारत’ में भी हिंदुओं की हो जाएगी या उससे भी बदतर।
आज के परिदृश्य में आपने सही विश्लेषण किया है।
लेकिन आज राजनीति से ऊपर उठ कर हम सभी को राम के गुणों को अपनाने की नितांत आवश्यकता है।
धन्यवाद।
a nicely compiled article ….
Thanks